Monday, 23 March 2015

पञ्चतन्त्र

पञ्चतन्त्र--

दमनक नामक चतुर शियार सीधे-सादे संजीवक नामक बैल से बात कर रहा है। (भारतीय चित्रकला, १६१०)
संस्कृत नीतिकथाओं में पंचतंत्र का पहला स्थान माना जाता है। यद्यपि यह पुस्तक अपने मूल रुप में नहीं रह गयी है, फिर भी उपलब्ध अनुवादों के आधार पर इसकी रचना तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व[1] के आस- पास निर्धारित की गई है। इस ग्रंथ के रचयिता पं॰ विष्णु शर्मा है। उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर कहा जा सकता है कि जब इस ग्रंथ की रचना पूरी हुई, तब उनकी उम्र लगभग ८० वर्ष थी। पंचतंत्र को पाँच तंत्रों (भागों) में बाँटा गया है: vidio dekhe----http://sanskrit.jnu.ac.in/elearning/mainpage.html

मित्रभेद (मित्रों में मनमुटाव एवं अलगाव)
मित्रलाभ या मित्रसंप्राप्ति (मित्र प्राप्ति एवं उसके लाभ)
काकोलुकीयम् (कौवे एवं उल्लुओं की कथा)
लब्धप्रणाश (हाथ लगी चीज (लब्ध) का हाथ से निकल जाना (हानि))
अपरीक्षित कारक (जिसको परखा नहीं गया हो उसे करने से पहले सावधान रहें ; हड़बड़ी में कदम न उठायें)
मनोविज्ञान, व्यवहारिकता तथा राजकाज के सिद्धांतों से परिचित कराती ये कहानियाँ सभी विषयों को बड़े ही रोचक तरीके से सामने रखती है तथा साथ ही साथ एक सीख देने की कोशिश करती है।

पंचतंत्र की कई कहानियों में मनुष्य-पात्रों के अलावा कई बार पशु-पक्षियों को भी कथा का पात्र बनाया गया है तथा उनसे कई शिक्षाप्रद बातें कहलवाने की कोशिश की गई है।


पंचतंत्र के सन् १४२९ के फारसी अनुवाद से एक पृष्ट
पंचतन्त्र की कहानियां बहुत जीवंत हैं। इनमे लोकव्यवहार को बहुत सरल तरीके से समझाया गया है। बहुत से लोग इस पुस्तक को नेतृत्व क्षमता विकसित करने का एक सशक्त माध्यम मानते हैं। इस पुस्तक की महत्ता इसी से प्रतिपादित होती हती है कि इसका अनुवाद विश्व की लगभग हर भाषा में हो चुका है।

नीतिकथाओं में पंचतंत्र का पहला स्थान है। विभिन्न उपलब्ध अनुवादों के आधार पर इसकी रचना तीसरी शताब्दी के आस- पास निर्धारित की जाती है। पंचतंत्र ही हितोपदेश की रचना का आधार है। स्वयं नारायण पण्डित जी ने स्वीकार किया है--

पञ्चतन्त्रात्तथाऽन्यस्माद् ग्रंथादाकृष्य लिख्यते॥
- श्लोक सं.९, प्रस्ताविका, हितोपदेश
पंचतन्त्र का रचनाकाल
पंचतन्त्र की रचना किस काल में हुई, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता क्योंकि पंचतन्त्र की मूल प्रति अभी तक उपलब्ध नहीं है। कुछ विद्वानों ने पंचतन्त्र के रचयिता एवं पंचतन्त्र की भाषा शैली केआधर इसके रचनाकाल के विषय में अपने मत प्रस्तुत किए है।

महामहोपाध्याय पं॰ सदाशिव शास्त्री के अनुसार पंचतन्त्र के रचयिता विष्णुशर्मा थे और विष्णुशर्मा चाणक्य का ही दूसरा नाम था। अतः पंचतन्त्र की रचना चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में ही हुई है और इसका रचना काल 300 ई.पू. माना जा सकता है। पर पाश्चात्य तथा कुछ भारतीय विद्वान् ऐसा नहीं मानते, उनका कथन है कि चाणक्य का दूसरा नाम विष्णुगुप्त था विष्णुशर्मा नहीं, तथा उपलब्ध पंचतन्त्र की भाषा की दृष्टि से तो यह गुप्तकालीन रचना प्रतीत होती है।

महामहोपाध्याय पं॰ दुर्गाप्रसाद शर्मा ने विष्णुशर्मा का समय अष्टमशतक के मध्य भाग में माना है क्योंकि पंचतन्त्र के प्रथम तन्त्र में आठवीं शताब्दी के दामोदर गुप्त द्वारा रचित कुट्टिनीमत की फ्पर्यघ्कः स्वास्तरणम्य् इत्यादि आर्या देखी जाती है, अतः यदि विष्णुशर्मा पंचतन्त्र के रचयिता थे तो वे अष्टम शतक में हुए होंगे। परन्तु केवल उक्त श्लोक के आधर पर पंचतन्त्र की रचना अष्टम शतक में नहीं मानी जा सकती, क्योंकि यह श्लोक किसी संस्करण में प्रक्षिप्त भी हो सकता है।

हर्टेल और डॉ॰ कीथ, इसकी रचना 200 ई.पू. के बाद मानने के पक्ष में है। चाणक्य के अर्थशास्त्र का प्रभाव भी पंचतन्त्र में दिखाई देता है इसके आधर पर भी यह कहा जा सकता है कि चाणक्य का समय लगभग चतुर्थ शताब्दी पूर्व का है अतः पंचतन्त्र की रचना तीसरी शताब्दी के पूर्व हुई होगी।

इस प्रकार पंचतन्त्र का रचनाकाल विषयक कोई भी मत पूर्णतया सर्वसम्मत नहीं है।

पंचतंत्र के संस्करण


इण्डोनेशिया के केन्द्रीय जावा के मेन्दुत मन्दिर में पंचतंत्र की उच्चावच (relief)
संस्करण-पंचतन्त्र के चार संस्करण उपलब्ध है-

प्रथम संस्करण मूलग्रन्थ का पहलवी अनुवाद है जो अब सीरियन एवं अरबी अनुवादों के रूप में प्राप्त होता है।

द्वितीय संस्करण के रूप में पंचतन्त्र गुणाढयकृत ‘बृहत्कथा’ में दिखाई पड़ता है। ‘बृहत्कथा की रचना पैशाची भाषा में हुई थी किन्तु इसका मूलरूप नष्ट हो गया है और क्षेमेन्द्रकृत ‘बृहत्कथा मंजरी' तथा सोमदेव लिखित ‘कथासरित्सागर’ उसी के अनुवाद हैं।

तृतीय संस्करण में तन्त्राख्यायिका एवं उससे सम्बद्ध जैन कथाओं का संग्रह है। ‘तन्त्राख्यायिका’ को सर्वाधिक प्राचीन माना जाता है। इसका मूल स्थान कश्मीर है। प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् डॉ॰ हर्टेल ने अत्यन्त श्रम के साथ इसके प्रामाणिक संस्करण को खोज निकाला था। इनके अनुसार ‘तन्त्राख्यायिका’ या तन्त्राख्या ही पंचतन्त्र का मूलरूप है। यही आधुनिक युग का प्रचलित ‘पञ्चतन्त्र’ है।

चतुर्थ संस्करण दक्षिणी ‘पंचतन्त्र’ का मूलरूप है तथा इसका प्रतिनिधित्व नेपाली ‘पञ्चतन्त्र’ एवं ‘हितोपदेश’ करते हैं।

इस प्रकार ‘पंचतन्त्र’ एक ग्रन्थ न होकर एक विशाल साहित्य का प्रतिनिधि है।

विश्व-साहित्य में भी पंचतन्त्र का महत्वपूर्ण स्थान है। इसका कई विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। इन अनुवादों में पहलवी भाषा का ‘करटकदमनक’ नाम का अनुवाद ही सबसे प्राचीन अनुवाद माना जाता है। विंटरनित्ज़ के अनुसार जर्मन साहित्य पर पंचतन्त्र का अधिक प्रभाव देखा जाता है। इसी प्रकार ग्रीक की ईसप् की कहानियों का तथा अरब की 'अरेबिअन नाइट्स' आदि कथाओं का आधार पंचतन्त्र ही है। ऐसा माना जाता है कि पंचतन्त्र का लगभग 50 विविध भाषाओं में अब तक अनुवाद हो चुका है और इसके लगभग 200 संस्करण भी हो चुके है। यही इसकी लोकप्रियता का परिचायक है।

पंचतन्त्र का स्वरूप
पंचतन्त्र में पांच तन्त्र या विभाग है। (पंचानाम् तन्त्राणाम् समाहारः - द्विगुसमास) विभाग को तन्त्र इसलिए कहा गया है क्योंकि इनमें नैतिकतापूर्ण शासन की विधियाँ बतायीं गयीं हैं। ये तन्त्र हैं- मित्रभेद, मित्रसम्प्राप्ति (मित्रलाभ), काकोलूकीयम् (सन्धि-विग्रह), लब्धप्रणाश एवं अपरीक्षितकारक।

संक्षेप में इन तन्त्रों की विषयवस्तु इस प्रकार है-



मित्रभेद

नीतिकथाओं में, जैसा कि पहले बताया जा चुका है किएक मुख्य कथा होती है और उसको पुष्ट करने के लिए अनेक गौण कथाएं होतीहैं उसी प्रकार ‘मित्रभेद’ नामक इस प्रथम तन्त्र में अंगीकथा के पूर्व दक्षिण में महिलारोप्य के राजा अमरशक्ति की कथा दी गई है जिसमें यह बताया गया है कि वे अपने मूर्ख पुत्रों के लिए कारण चिन्तित थे और इसलिए वे विष्णुशर्मा नामक विद्वान् को अपने पुत्रों को शिक्षित करने के सौंप देते है और विष्णुशर्मा उन्हें छः मास में ही कथाओं के माध्यम से सुशिक्षित करने में सफल होते हैं। तत्पश्चात् मित्रभेद नामक भाग की अंगी-कथा में, एक दुष्ट सियार द्वारा पिंगलक नामक सिंह के साथ संजीवक नामक बैल की शत्रुता उत्पन्न कराने का वर्णन है जिसे सिंह ने आपत्ति से बचाया था और अपने दो मन्त्रियों- करकट और दमनक के विरोध करने पर भी उसे अपना मित्र बना लिया था। इस तन्त्र में अनेक प्रकार की शिक्षाएं दी गई है जैसे कि धैर्य से व्यक्ति कठिन से कठिन परिस्थिति का भी सामना कर सकता है अतः प्रारब्ध के बिगड़ जाने पर भी धैर्य का त्याग नहीं करना चाहिए-

त्याज्यं न धैर्यं विधुरेऽपि काले धैर्यात्कदाचित् गतिमाप्नुयात्सः (मित्रभेद, श्लोक 345)
मित्रसम्प्राप्ति

इस तन्त्र में मित्र की प्राप्ति से कितना सुख एवं आनन्दप्राप्त होता है वह कपोतराज चित्रग्रीव की कथा के माध्यम से बताया गया है। विपत्ति में मित्र ही सहायता करता है-

सर्वेषामेव मर्त्यानां व्यसने समुपस्थिते।
वाड्मात्रेणापि साहाय्यंमित्रादन्यो न संदधे।। (मित्रसम्प्राप्ति श्लोक 12)
ऐसा कहा गया है कि मित्र का घर में आना स्वर्ग से भी अधिक सुख को देता है।

सुहृदो भवने यस्य समागच्छन्ति नित्यशः।
चित्ते च तस्य सौख्यस्य न किञ्चत्प्रतिमं सुखम्।। (मित्रसम्प्राप्ति श्लोक 18)
इस प्रकार इस तन्त्र का उपदेश यह है कि उपयोगी मित्र हीबनाने चाहिए जिस प्रकार कौआ, कछुआ, हिरण और चूहा मित्रता के बल पर ही सुखी रहे।


काकोलूकीय
इसमें युद्ध और सन्धि का वर्णन करते हुए उल्लुओं की गुहा को कौओं द्वारा जला देने की कथा कही गयी है। इसमें यह बताया गया है कि स्वार्थसिद्धि के लिए शत्रु को भी मित्र बना लेना चाहिए और बाद में धेखा देकर उसे नष्ट कर देना चाहिए। इस तन्त्र में भी कौआ उल्लू से मित्रता कर लेता है और बाद में उल्लू के किले में आग लगवा देता है। इसलिए शत्रुओं से सावधन रहना चाहिए क्योंकि जो मनुष्य आलस्य में पड़कर स्वच्छन्दता से बढ़ते हुए शत्रु और रोग की उपेक्षा करता है- उसके रोकने की चेष्टा नहीं करता वह क्रमशः उसी (शत्रु अथवा रोग) से मारा जाता है-

य उपेक्षेत शत्रु स्वं प्रसरस्तं यदृच्छया।
रोग चाऽलस्यसंयुक्तः स शनैस्तेन हन्यते।। (काकोलूकीय श्लोक 2)


लब्धप्रणाश
इस तन्त्र में वानर और मगरमच्छ की मुख्य कथा है और अन्य अवान्तर कथाएं हैं। इन कथाओं में यह बताया गया है कि लब्ध अर्थात् अभीष्ट की प्राप्ति होते होते कैसे रह गई अर्थात नष्ट हो गई। इसमें वानर और मगरमच्छ की कथा के माध्यम से शिक्षा दी गई है कि बुद्धिमान अपने बुद्धिबल से जीत जाता है और मूर्ख हाथ में आई हुई वस्तु से भी वंचित रह जाता है।

अपरीक्षितकारक

पंचतन्त्र के इस अन्तिम तन्त्र अर्थात् भाग में विशेषरूप से विचार पूर्वक सुपरीक्षित कार्य करने की नीति पर बल दिया है क्योंकि अच्छी तरह विचार किए बिना एवं भलीभांति देखे सुने बिना किसी कार्य को करने वाले व्यक्ति को कार्य में सफलता प्राप्त नहीं होती अपितु जीवन में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। अतः अन्धनुकरण नहीं करना चाहिए। इस तन्त्र की मुख्य कथा में बिना सोचे समझे अन्धनुकरण करने वाले एक नाई की कथा है जिसको मणिभद्र नाम के सेठ का अनुकरण करजैन-संन्यासियों के वध के दोष पर न्यायाधीशों द्वारा मृत्युदण्ड दिया गया। अतः बिना परीक्षा किए हुए नाई के समान अनुचित कार्य नहीं करना चाहिए-

कुदृष्टं कुपरिज्ञातं कुश्रुतं कुपरीक्षितम्।
तन्नरेण न कर्त्तव्यं नापितेनात्र यत् कृतम्।। (अपरीक्षितकारक श्लोक-1)
इसमें यह भी बताया है कि पूरी जानकारी के बिना भी कोई कार्य नहीं करना चाहिए क्योंकि बाद में पछताना पड़ता है जैसे कि ब्राह्मण पत्नीने बिना कुछ देखे खून से लथपथ नेवले को यह सोचकर मार दिया कि इस ने मेरे पुत्र कोखा लिया है वस्तुतः नेवले ने तो सांप से बच्चे की रक्षा करने के लिए सांप को मारा था जिससे उसका मुख खून से सना हुआ था।

इसलिए कहा गया-

अपरीक्ष्य न कर्त्त्व्यं कर्त्त्व्यं सुपरीक्षितम्।
पश्चात् भवति सन्तापो ब्राह्मण्या नकुले यथा।। (अपरीक्षित कारक श्लोक-17)
इस प्रकार पंचतन्त्र एक उपदेशपरक रचना है। इसमें लेखकने अपनी व्यवहार कुशलता राजनैतिकपटुता एवं ज्ञान का परिचय दिया है। नीति-कथाओं के मानवेतर पात्र प्रायः दो प्रकार के होते हैं, सजीव प्राणी तथा अचेतन पदार्थ। पंचतन्त्र में भी ये दो प्रकार के पात्र देखे जाते हैं- पशुओं में सिंह, व्याघ्र, शृगाल, शशक, वृषभ, गधा, आदि, पक्षियों में काक, उलूक, कपोत, मयूर, चटक, शुक आदि तथा इतर प्राणियों में सर्प, नकुल, पिपीलिका आदि। इनके अतिरिक्त नदी, समुद्र, वृक्ष, पर्वत, गुहा आदि भी अचेतन पात्र हैं, जिन पर कि मानवीय व्यवहारों का आरोप किया गया है। पंचतन्त्र में मानव को व्यवहार कुशल बनाने का प्रयास अत्यधिक सरल एवं रोचक शैली में किया गया है। पंचतन्त्र के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए डॉ॰ वासुदेव शरण अग्रवाल ने लिखा है कि-


"पंचतन्त्र एक नीति शास्त्र या नीति ग्रन्थ है- नीति का अर्थ जीवन में बुद्धि पूर्वक व्यवहार करना है। चतुरता और धूर्तता नहीं, नैतिक जीवन वह जीवन है जिसमें मनुष्य की समस्त शक्तियों और सम्भावनाओं काविकास हो अर्थात् एक ऐसे जीवन की प्राप्ति हो जिसमें आत्मरक्षा, धन-समृद्धि, सत्कर्म, मित्रता एवं विद्या की प्राप्ति हो सके और इनका इस प्रकार समन्वय किया गया हो कि जिससे आनंद की प्राप्ति हो सके, इसी प्रकार के जीवन की प्राप्ति के लिए, पंचतन्त्र में चतुर एवं बुद्धिमान पशु-पक्षियों के कार्य व्यापारों से सम्बद्ध कहानियां ग्रथित की गई हैं। पंचतन्त्र की परम्परा के अनुसार भी इसकी रचना एक राजा के उन्मार्गगामी पुत्रों की शिक्षा के लिए की गई है और लेखक इसमें पूर्ण सफल रहा है।"
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Sunday, 22 March 2015

 जातक
जातक या जातक पालि या जातक कथाएं बौद्ध ग्रंथ त्रिपिटक का सुत्तपिटक अंतर्गत खुद्दकनिकाय का १०वां भाग है। इन कथाओं में महात्मा बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथायें हैं। विश्व की प्राचीनतम लिखित कहानियाँ जातक कथाएँ हैं जिसमें लगभग 600 कहानियाँ संग्रह की गयी है। यह ईसवी संवत से 300 वर्ष पूर्व की घटना है। इन कथाओं मे मनोरंजन के माध्यम से नीति और धर्म को समझाने का प्रयास किया गया है।
जातक कथा - रुरु मृग
जातक कथा - दो हंसों की कहानी
जातक कथा - चाँद पर खरगोश
जातक कथा - छद्दन्द हाथी की कहानी
जातक कथा - महाकपि
जातक कथा - लक्खण मृग की कथा
जातक कथा - संत महिष
जातक कथा - सीलवा हाथी
जातक कथा - बुद्धिमान् वानर
जातक कथा - सोने का हंस
जातक कथा - महान मर्कट
जातक कथा - महान मत्स्य
जातक कथा - कपिराज
जातक कथा - सिंह और सियार
जातक कथा - सोमदन्त
जातक कथा - कौवों की कहानी
जातक कथा - वानर-बन्धु
जातक कथा - निग्रोध - मृग
जातक कथा - कालबाहु
जातक कथा - नन्दीविसाल
जातक कथा - उल्लू का राज्याभिषेक
जातक कथा - श्राद्ध-संभोजन
जातक कथा - बंदर का हृदय
जातक कथा - बुद्धिमान् मुर्गा
जातक कथा - व्याघ्री-कथा
जातक कथा - कबूतर और कौवा
जातक कथा - रोमक कबूतर
जातक कथा - रुरदीय हिरण
जातक कथा - कृतघ्न वानर
जातक कथा - मूर्ख करे जब बुद्धिमानी का काम
जातक कथा - कछुए की कहानी
जातक कथा - सियार न्यायधीश
जातक कथा - सपेरी और बंदर
जातक कथा - चमड़े की धोती
जातक कथा - दानव-केकड़ा
जातक कथा - महिलामुख हाथी
जातक कथा - विनीलक-कथा
जातक कथा - वेस्सन्तर का त्याग
जातक कथा - विधुर
जातक कथा - क्रोध-विजयी चुल्लबोधि
जातक कथा - कहानी कुशीनगर की
जातक कथा - सहिष्णुता का व्रत
जातक कथा - मातंग : अस्पृश्यता का पहला सेनानी
जातक कथा - इसिसंग का प्रलोभन
जातक कथा - शक्र की उड़ान
जातक कथा - महाजनक का संयास
जातक कथा - सुरा-कुंभ
जातक कथा - सिवि का त्याग
जातक कथा - दैत्य का संदूक
जातक कथा - कुशल-ककड़ी
जातक कथा - कंदरी और किन्नरा
जातक कथा - घतकुमार
जातक कथा - नाविक सुप्पारक
जातक कथा - नागराज संखपाल
जातक कथा - चंपेय्य नाग
जातक कथा - बावेरु द्वीप
जातक कथा - कुशल जुआरी
जातक कथा - गूंगा राजकुमार
जातक कथा - निश्छल गृहस्थ
जातक कथा - मणिवाला साँप
जातक कथा - आम चोर
जातक कथा - पैरों के निशान पढ़ने वाला यक्षिणी-पुत्र
जातक कथा - सुतसोम-कथा
जातक कथा - सुदास-कथा
जातक कथा - बौना तीरंदाज
जातक कथा - पेट का दूत
जातक कथा - ढोल बजाने वाले की कहानी
जातक कथा - जानवरों की भाषा जानने वाला राजा
जातक कथा - सुखबिहारी
जातक कथा - साम
जातक कथा - गौतम की बुद्धत्व प्राप्ति
जातक कथा - गौतम बुद्ध की जन्म-कथा
जातक कथा - महामाया का स्वप्न
जातक कथा - असित
जातक कथा - चार दृश्य
जातक कथा - गौतम का गृह-त्याग
जातक कथा - मार पर बुद्ध की विजय
जातक कथा - बुद्ध का व्यक्तित्व
जातक कथा - बुद्ध और नालागिरी हाथी
जातक कथा - बालक कुमार कस्सप की कथा
जातक कथा - धम्म चक्र-पवत्तन-कथा
जातक कथा - बुद्ध की अभिधर्म-देशना

जातक कथा - राहुलमाता से बुद्ध की भेंट
जातक कथा - सावत्थि चमत्कार
जातक कथा - बुद्ध की आकाश-उड़ान
जातक कथा - परिनिब्बान-कथा
जातक कथा - सुद्धोदन
जातक कथा - सुजाता
जातक कथा - सारिपुत्र
जातक कथा - मोग्गलन
जातक कथा - मार-कथा
जातक कथा - बिम्बिसार
जातक कथा - नंद कुमार
जातक कथा - जनपद कल्याणी नंदा
जातक कथा - जनपद कल्याणी की आध्यात्मिक यात्रा
जातक कथा - फुस्स बुद्ध
जातक कथा - विपस्सी बुद्ध
जातक कथा - शिखि बुद्ध
जातक कथा - वेस्सभू बुद्ध
जातक कथा - ककुसन्ध बुद्ध
जातक कथा - कोनगमन बुद्ध
जातक कथा - कस्सप बुद्ध
जातक कथा - मेत्रेयः भावी बुद्ध

काव्यादर्श

काव्यादर्श

काव्यादर्श अलंकारशास्त्राचार्य दंडी (६ठी - ७वीं शती ई.) द्वारा रचित संस्कृत काव्यशास्त्र संबंधी प्रसिद्ध ग्रंथ है।
परिचय
काव्यादर्श के प्रथम परिच्छेद में काव्य के तीन भेद किए गए हैं– (१) गद्य, (२) पद्य तथा (३) मिश्र।। गद्य पुन: 'आख्यायिका' और 'कथा' शीर्षक दो उपभेदों में विभाजित है। परंतु उक्त दोनों के लक्षणों में किसी मौलिक अंतर का निर्देश नहीं किया गया है। कृतिकार ने संस्कृत गद्य साहित्य की भी चार कोटियाँ मानी हैं– 'संस्कृत', 'प्राकृत', 'अपभ्रंश' तथा 'मिश्र'। 'वैदर्भी' और 'गौड़ी' नामक दो शैलियों तथा १० गुणों का परिचय भी इसी परिच्छेद में है। रचयिता ने अनुप्रास के भेद गिनाकर उनमें से प्रत्येक के लक्षण एवं उदाहरण भी दिए हैं। 'श्रुत', 'प्रतिभा' तथा 'अभियोग' को दंडी ने कवि मात्र के तीन नियामक गुण माने हैं।

द्वितीय परिच्छेद में अलंकार की परिभाषा, लक्षण और उद्देश्य देने के उपरांत स्वभावोक्ति, उपमा, रूपक, दीपक, आवृत्ति, आक्षेप, अर्थातरन्यास, व्यतिरेक, विभावना, समासोक्ति, अतिशयोक्ति, उत्प्रेक्षा, हेतु, सूक्ष्म, लेश, क्रम (यथासंख्य), प्रेयस्, रसवत्, ऊर्जस्वी, पर्यायोक्त, समाहित, उदात्त, अप्ह्रति, श्लेष, विशेषोक्ति, तुल्ययोगिता, विरोध, अप्रस्तुतप्रशंसा, व्याजस्तुति, निदर्शन, सहोक्ति, परिवृत्ति, आशी, संसृष्टि (संकीर्ण) तथा भाविक इत्यादि ३५ अलंकारों के लक्षण, भेद एवं उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं।

तृतीय परिच्छेद में 'यमक' का सांगोपांग विवेचन है। साथ ही, चित्रकाव्य, गोमूत्रिका, अर्धभ्रम, सर्वताभेद्र, स्वरनियम, स्थाननियम, वर्णनियम तथा प्रहेलिका इत्यादि के लक्षण एवं उदाहरण भी दे दिए गए हैं। ग्रंथा के अन्त में काव्यदोषों का परिचय है।
डॉ॰ एस.के. बेलतलकर द्वारा संपादित एवं १९२४ ई. में पूना से प्रकाशित काव्यादर्श के संस्करण में तीन परिच्छेद और कुल ६६० छंद हैं जबकि रंगाचार्य रेड्डी शास्त्री द्वारा संपादित और मद्रास से १९१० ई. में प्रकाशित काव्यादर्श के संस्करण में चार परिच्छेद और ६६३ छंद हैं। वस्तुत: मूल ग्रंथ में जो तीन ही परिच्छेद हैं, किंतु रंगाचार्य रेड्डी ने तृतीय परिच्छेद को दो भागों में विभक्त करके उक्त ग्रंथ को चार परिच्छेदों में प्रस्तुत कर दिया है।

Tuesday, 17 March 2015

Harshchritam

                    हर्षचरितम्

हर्षचरित संस्कृत में बाणभट्ट द्वारा रचित एक ग्रन्थ है। इसमें भारतीय सम्राट हर्षवर्धन का जीवनचरित वर्णित है। ऐतिहासिक कथानक से सम्बन्धित यह संस्कृत का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है।

परिचय
राज्यश्री को इस समय उपलब्ध हर्षचरित आठ उच्छ्वासों में विभाजित है। जिसमें से पहले ढाई उच्छ्वास बाण की आत्मकथा रूप में हैं। तदुपरान्त स्थाणीश्वर (आधुनिक थानेश्वर) के पुण्यभूति वंश, जिनमें हर्ष के पिता प्रभाकरवर्धन का जन्म हुआ था, का वर्णन है। बाण ने प्रभाकरवर्धन की पुत्री राज्यश्री और कन्नौजाधिपति ग्रहवर्मा मौखरि के विवाह का वर्णन किया है। अपने ज्येष्ठ पुत्र राजवर्धन को हूणों का हनन करने के लिए भेजकर प्रभाकरवर्धन ज्वरग्रस्त हो गए। बाण ने उसके रोग, मृत्यु, दाह-संस्कार एवं साम्रज्ञी यशोमती के आत्मदाह का वर्णन किया है। तभी गौड़ एवं मालव सेनाओं के कन्नौज पर आक्रमण तथा ग्रहवर्मा की हत्या की सूचना मिलती है यह सुनकर राज्यवर्धन कन्नौज की ओर बढ़े। शत्रुओं ने हथियार डाल दिए। परन्तु चालाकी खेली। राज्यवर्धन को शत्रु शिविर में आमंत्रित किया गया और उनकी निर्मम हत्या कर दी गई। हर्ष ने अपने बहनोई एवं भाई की हत्या का बदला लेने की प्रतिज्ञा की तथा कन्नौज की ओर प्रस्थान किया। हर्ष की बढ़ती हुई सेना के सामने शत्रु भाग निकला। यह सुनकर हर्ष के विस्मय का अन्त था कि राज्यश्री कैद से छूटकर विंध्याचल की ओर चली गई। बहुत परिश्रमयुक्त खोज के पश्चात् हर्ष ने आत्मदाह करने को तत्पर दिवाकर मित्र ऋषि के आश्रम के पास पाया और गंगा के तट पर अपने शिविर में ले आया। यहाँ ग्रंथ अकस्मात् समाप्त हो जाता है।
ऐसा कहा जाता है कि बाण का विचार हर्ष के चरित्र को पूर्णरूपेण लिखने का नहीं था। वह इसका केवल मात्र एक अंश लिखना चाहते थे क्योंकि उन्होंने अपने श्रोताओं को बतलाया हैहर्ष के जीवन का वर्णनसैकड़ों जीवनों में भी नहीं किया जा सकता। यदि आप उसका एक अंश सुनना चाहते हो तो मैं तैयार हूँ। यह भी ठीक ही कहा जाता है किहर्षचरितहर्ष के जीवन की केवल एक घटना मात्र है क्योंकि हर्ष चरित से उपलब्ध ऐतिहासिक ज्ञान बहुत ही कम है। परन्तु इस ग्रंथ की समालोचना करते हुए हमें इसे ऐतिहासिक रचना के रूप में नहीं देखना चाहिए। वस्तुतः उसे ऐतिहासिक कथानक से युक्त एक काव्य कहना ही अधिक युक्तिसंगत है। लेखक की पूर्ण शक्ति काव्य-प्रतिभा का प्रदर्शन करने पर ही केन्द्रित है और ऐतिहासिकता उनके लिए गौण है। उन्होंने कृति के प्रतिनायक भूत गौड़ एवं मालव राजाओं का नाम भी नहीं दिया है। भूमि को गौड़ों से शून्य करने के हर्ष के निश्चय होने पर भी, बाण ने गौड़ों की भावी घटनाओं को छोड़ दिया है। जहां पाठक विंध्यपर्वत में से हर्ष की गवेषणा के परिणाम को सुनने को उत्कण्ठित हैं वहां बाण विन्ध्यपर्वत का सूक्ष्म वर्णन करने में सं




अस्तु, बाण ने हर्ष की प्रस्थान करती हुई सेना का, राज्यसभा का, धार्मिक सम्प्रदायों का, ग्रामों का सुन्दर चित्र प्रस्तुत किया है जो कि इतिहास की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है

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